फ़ुकुशिमा में विनाश और भारत के लिये सबक



- अणुमुक्ति

जापान में चल रही परमाणु तबाही अभी थमी नहीं है. हालांकि इस हफ़्ते की शुरुआत से ही जापान की सरकार, और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया यह माहौल बना रहा है कि फ़ुकुशिमा में सबकुछ नियन्त्रण में आ चुका है. हमारे देश के परमाणु प्रतिष्ठान ने जहाँ फ़ुकुशिमा दुर्घटना की भयावहता को स्वीकार करने में सबसे ज़्यादा देर लगाई, वैसे ही अब सबकुछ ठीक है की रट लगाने में भी भारतीय परमाणु नीति-निर्माताओं का कुनबा सबसे आगे है. परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष श्री सुकुमार बनर्जी ने हाल के एक टीवी सक्षात्कार में कहा कि परमाणु-दुर्घटनाओं से ज़्यादा मौतें हर साल दिल्ली की सड़कों पर होने वाले हादसों में होती हैं. परमाणु ऊर्जा विभाग की वेबसाइट में परमाणु ऊर्जा को इसलिये सुरक्षित और श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि अन्य ऊर्जा स्रोतों के मुकाबले परमाणु से बिजली उत्पादन के दौरान प्रति मेगावाट बिजली सबसे कम मृत्यु होती है. इस कथन में निहित धारणाएँ यह हैं कि हमारे सामने आर्थिक वृद्धि के पागलपन से इतर ना ऊर्जा की बचत और टिकाऊ विकास का कोई वैकल्पिक तरीका नहीं है ना ही ताप या पनबिजली उद्योग में मुनाफ़े के लालच में जीवन के प्रति बरती जाने वाली कोताही रोकी जा सकती है. जैसे कि परमाणु बिजली का विरोध करने वाले बड़े बांधों और खतरनाक खनन का समर्थन करते हैं और आमलोगों के पास विकल्प बस यही है कि वे यह चुनें कि उन्हें कैसे मरना है - परमाणु विकिरण से, ताप-विद्युत निर्माण के दौरान कोयले की खान इत्यादि में या फ़िर दिल्ली की सड़कों पर अमीरों की गाड़ियों के नीचे. मानव-जीवन और पर्यावरण के प्रति ऐसा निर्मम तकनीक-केन्द्रित रुख रखने वाले हमारे देश की ऊर्जा-नीति तय कर रहे हैं, यह सोच कर ही मन सिहर जाता है. लेकिन तब, ये सबकुछ ऐसे समय में हो रहा है जब एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री गोदामों में सड़ रहे अनाज को सर्वोच्च न्यायालय के कहने के बद भी गरीबों में बाँटने से इसलिए मना कर देता है क्योंकि उसे लगता है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा.

लेकिन ये सब सिर्फ़ तकनीक या अर्थशास्त्र के नियमों के प्रति किसी मासूम आस्था की वजह से नहीं हो रहा. १४ मार्च को जब अफ़रातफ़री में रिएक्टरों में समुद्र का पानी डाला जा रहा था, NPCIL के चेयरमैन एस.के.जैन हमें समझा रहे थे कि फ़ुकुशिमा में कोई परमाणु दुर्घटना नहीं हुई है. यह सबकुछ बस संयंत्र के संचालकों द्वारा सुनियोजित व्यवस्थापरक तैयारी है. इस बीच जापान ने फ़ुकुशिमा के नजदीकी इबाराकी और मियागी प्रांतों से देश के बाकी हिस्सों में जानेवाले खाद्य-पदार्थ पर रोक लगा दी है और फ़ुकुशिमा से २४० किमी दूर स्थित टोक्यो में विकिरण के कारण नल का पानी बच्चों को पिलाने से मना कर दिया है. जापान में परमाणु-दुर्घटना से हुई तबाही की लीपापोती में भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान का अपना हित है - ये नहीं चाहते कि परमाणु-करार के बाद विदेशी कम्पनियों से खरीदे जा रहे रिएक्टरों को लेकर लोग और सवाल खड़े करें. जर्मनी, स्वीडन, पोलैंड, फिलीपीन्स, इटली और कई अन्य देशों ने फ़ुकुशिमा की खबर के बाद अपने परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगा दी है और उनपर व्यापक पुनर्विचार और सुरक्षा-जाँच के आदेश दिये हैं. खुद फ़्रांस, जहाँ की कम्पनी अरेवा जैतापुर में बिना टेस्ट किये रिएक्टर लगा रही है, के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी ने कहा है कि वे फ़्रांसीसी रिएक्टर-डिजाइनों की युरोप के स्तर पर पुनर्समीक्षा करवाएंगे. ऐसे में, पूरी दुनिया और खुद जापान की तुलना में फ़ुकुशिमा की दुर्घटना को कम करके आंकना और भारतीय रिएक्टरों के सुरक्षित होने का दावा करने के पीछे हमारे परमाणु नीति-निर्माताओं की खतरनाक मंशा साफ़ झलकती है. सच्चाई यह है कि भारत के परमाणु बिजली-केंद्रों में छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं शुरु से होती रही हैं. उत्तरप्रदेश के नरोरा स्थित परमाणु-संयत्र में शीतन के लिये जरूरी बिजली पूरे २४ घंटे गुल होने और नियंत्रण-कक्ष की मशीनें फुँक जाने की घटना १९९३ में हो चुकी है. हलांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भारत के रिएक्टरों की सुरक्षा-समीक्षा के लिये कहा है, लेकिन यह पूरी जाँच कागजी कारवाई से ज़्यादा कुछ साबित नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में परमाणु-उद्योग के नियमन के लिये जिम्मेदार संस्था (परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड- AERB) खुद परमाणु ऊर्जा अयोग (DAE) के मातहत काम करती है. इस विरोधाभास पर देश के कई प्रमुख विशेषग्य और जनपक्षधर समूह लगातार आवाज़ उठाते रहे हैं.

जापान में लगातार बिगड़ते हालात
उधर जापान में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. २५ मार्च को फ़ुकुशिमा दाइ-इचि नम्बर-३ रिएक्टर में तीन मजदूरों की हालत गम्भीर हो गई जब रिएक्टर से रिस रहा भारी विकिरण-युक्त पानी से उनके पैर जल गये. दूषित पानी रिएक्टर नंबर १ और २ से भी निकल रहा है और इससे यह अनुमान भी लगाया गया कि इन रिएक्टर के मूल बरतन (main vessel) में दरार आई है जिसके अंदर सामान्य स्थिति में रेडियोधर्मी ईंधन जलाया जाता है जिसके ताप से पानी गर्म किया जाता है और फिर बिजली बनती है. बाद में जापानी सरकार और फुकुशिमा रिएक्टरों की संचालक कंपनी टेपको को यह मानना पडा कि रिएक्टर के कोर(केन्द्रक) से रिसाव हुआ है, वैसे ये अब भी इस रिसाव को 'तात्कालिक' और मानव- स्वास्थ्य के लिए तुरंत अहानिकर बता रहे हैं.

११ मार्च की भयावह सुनामी ने इन रिएक्टरों की शीतन-व्यवस्था (coolant) को छिन्न-भिन्न कर दिया था और साथ ही आपातस्थिति में शीतन के लिये प्रयोग होने वाले डीजल-चालित जेनेरेटरों को भी नाकाम कर दिया था. लगातार शीतन के अभाव में रिएक्टर के अंदर हज़ारों डिग्री तापमान पर तप रहा परमाणु ईंधन बेकाबू हो गया है. उसे ठंडा करने के लिये पिछले हफ़्ते से सैकड़ों टन समुद्र का पानी उड़ेला जा रहा है. पहले तो बाहर से फेंके जा रहे इस पानी ने भाप बनकर फ़ुकुशिमा दाई-इचि के छह में से चार रिएक्टरों के बाहरी कंक्रीट आवरण को उड़ा दिया, वहीं अब खबर आ रही है कि समुंदर के पानी के साथ आया सैकड़ों टन नमक इन रिएक्टरों में जमा हो गया है और यह रिएक्टर के केंद्रक को ढँकने वाले स्टील में दरार पैदा कर सकता है. साथ ही, यह नमक परमाणु ईंधन ने ऊपर मोटी परत बनकर इकट्ठा हो रहा है जिससे उसे ठंढा करना और भी मुश्किल होता जाएगा. वैसे पानी की आपूर्ति अभी भी पर्याप्त नहीं हो पायी है और लगातार भयानक विकिरण और गर्मी छोड़ती परमाणु ईंधन की छड़ों के २ मीटर तक पानी से बाहर होने आशंका है.  इन रिएक्टरों में पड़ा पहले के बचे हुए ईंधन (spent fuel) के भी बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने की पुष्टि हुई है. यह शेष ईंधन भी अत्यधिक विकिरण-कारी और गरम होता है. 

सीटीबीटी ऑर्गनाइजेशन (CTBTO) के आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना से हुए विकिरण-रिसाव की मात्रा अबतक ही १९८६ में रूस में हुई चेर्नोबिल दुर्घटना के आधे से अधिक पहुँच चुकी है. चेर्नोबिल अब तक दुनिया की सबसे बड़े परमाणु-दुर्घटना है जिससे रूस और युरोप के एक बड़े हिस्से में दशकों तक रेडियेशन-जनित कैंसर और अन्य बीमारियाँ होती रही हैं और हाल के आंकड़ों के मुताबिक कुल नौ लाख लोग चेर्नोबिल के शिकार हुए हैं. दुनिया की बाकी सरकारों की तरह ही जापान की सरकार भी परमाणु-हादसों से जुड़ी सूचनाएँ छुपाती रही है और फुकुशिमा दुर्घटना में भी सरकारी लीपापोती के आरोप लग रहे हैं. खुद जापान के परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व-अध्यक्ष ने कहा है कि सरकार लोगों को अंधेरे में रख रही है. अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों और अंतर्रराष्ट्रीय परमाणु-विशेषग्यों ने जापान सरकार की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं. अमेरिका ने तो अपने उपग्रहों से मिली जानकारी के अधार पर जापान में अपने नागरिकों को रिएक्टर से ८० किमी दूर चले जाने को कहा है जबकि जापान सरकार ने पिछले दो हफ़्तों में इस दायरे को ३ किमी से धीरे-धीरे बढाकर अब ३० किमी किया है. रिएक्टरों के आस-पास स्थित विकिरण मापन यंत्रों की सूचना भी जापानी एजेंसियाँ ठीक-ठीक नहीं जारी कर रही हैं. जब विकिरण का स्तर बढता है तो जारी सूचना का अन्तराल बढाकर एक से डेढ़ घंटे कर दिया जाता है जबकि विकिरण के निचले स्तरों पर हर दस मिनट पर विकिरण की माप जारी की जा रही है. साथ ही, जापानी एजेंसियां टेपको (Tokyo Electric Production Company) और नीसा (Nuclear and Industrial Safety Authority) वातावरण में सिर्फ़ सीज़ियम-१३७ और आयोडीन-१३१ की मात्रा की जानकारी दे रही हैं और आयोडीन-विकिरण की काट के लिये लोगों को आयोडीन की गोलियाँ बाँटीं जा रहीं हैं, जबकि इस दुर्घटना से ट्रीशियम, स्ट्राँशियम  और प्लूटोनियम जैसे कई अन्य रेडियोधर्मी जहर भी फैल रहे हैं. इस दुर्घटना से निपटने में अपनी जान जोखिम में डाल रहे फ़ुकुशिमा फ़िफ़्टी नाम से प्रचारित किये जा रहे जाँबाज दरअसल अधिकतर वहाँ ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं, जिनकी जान की वैसे भी पूरी दुनिया में सस्ती समझी जाती है.

भारत के लिये सबक
अमेरिका से परमाणु-करार के बाद भारत ने बड़े पैमाने पर परमाणु बिजली-उत्पादन की योजना बनाई है. अगले बीस सालों में परमाणु-बिजली उत्पादन को दस गुने से भी ज़्यादा करने की इस सनक में देश के कई हिस्सों में लोगों को जबरन बेदखल किया जा रहा है. साथ ही, पर्यावरणीय प्रभावों के मुकम्मल अध्य्यन के बिना और भूकम्प तथा आपदा-सम्भावित इलाकों में इन रिएक्टरों को लगाया जा रहा है. महाराष्ट्र के जैतापुर, जो कोंकण के बहुत सुंदर-समृद्ध लेकिन भूकम्प सम्भावित और नाजुक समुद्र-तटीय क्षेत्र में स्थित है, में फ्राँस से आयतित कुल छह EPR रिएक्टर लगाए जा रहे हैं. फ्रांसीसी कम्पनी अरेवा के इस रिएक्टर डिजाइन पर फ़िनलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका और खुद फ्रांस की सुरक्षा एजेंसियों ने कुल तीन हज़ार आपत्तियाँ दर्ज की हैं. अरेवा का EPR रिएक्टर अबतक कहीं भी शुरु नहीं हुआ है. फ़िनलैंड में इसकी निर्माण-अवधि २ साल बढ़ानी पड़ी है जिससे इसकी लागत ७०% ज़्यादा हो गई है. पिछले साल UAE ने अपने यहाँ इस रिएक्टर डिजाइन की बजाय दक्षिणी कोरिया के एक रिएक्टर को चुना. लेकिन भारत सरकार तीव्र स्थानीय विरोध के बावजूद जैतापुर में इन रिएक्टरों को लगाने पर आमादा है. पिछले चार सालों से रत्नागिरि जिले के किसानों, मछुआरों, और आमलोगों ने इस रिएक्टर-परियोजना का विरोध किया है और सरकार द्वारा मुआवजे की रकम बढ़ाए जाने पर भी चेक स्वीकार नहीं किया है. उस इलाके में अंदोलन को समर्थन देने जाने वाले लोगों - जिनमें बम्बई उच्चन्यायालय के पूर्- न्यायाधीश और देश के पूर्व-जलसेनाधिपति भी शामिल हैं - को बाहरी और भड़काऊ बताकर जिले में घुसने से मना किया जा चुका है, और जिले के नागरिक आंदोलनकरियों को जिलाबदर कर दिया गया है. दर्जनों लोगों को झूठे मुकदमों में जेल में डाल दिया गया है.  परमाणु-डील को दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्रों क मिलन बताया गया था जबकि जैतपुर संयंत्र के इल्के में पड़ने वाले तीनों ग्राम-पंचायतों ने इस परियोजना के खिलफ़ आमराय से प्रस्ताव पारित किए हैं और फ़िर भी उनपर विस्थापन थोप दिया गया है. ज़ाहिर है सरकार सिर्फ़ फ़्रान्सीसी कम्पनी अरेवा को ही देशभक्त मानती है, बाकी सब उसके लिये बाहरी और गैर-ज़रूरी हैं. जैतापुर की तरह ही पश्चिम बंगाल के हरिपुर, आन्ध्र के कोवाडा, गुजरात के मीठीविर्डी, मध्य-प्रदेश के चुटका और हरियाणा के फ़तेहाबाद जैसे संवेदनशील भूभागों में भी ऐसी ही परियोजनाएँ शुरु की गई हैं, जिनका तीखा विरोध इन इलाकों में हो रहा है.

भारत में पहले से चल रहे अणु-बिजलीघर भी फ़ुकुशिमा जैसी त्रासदी की सम्भावना से मुक्त नहीं हैं. मुम्बई के बहुत नजदीक स्थित तारापुर रिएक्टर अमेरिकी कम्पनी जी.ई. (General Electrics) के उसी मार्क-वन डिज़ाइन के रिएक्टर हैं, जो फ़ुकुशिमा में हैं. इन रिएक्टरों में द्वितियक नियंत्रण ढाँचे (secondary containment structure) का अभाव है और शेष ईंधन (spent fuel) रिएक्टर के ऊपरी हिस्से में जमा होता है. तारापुर में पिछले चार दशकों से इकट्ठा यह अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा अमेरिका न तो वापस ले जा रहा है और ना ही भारत को इसे पुनर्संश्लेषित (reprocessing) करने दे रहा है.

परमाणु बिजली भारत की ऊर्जा-सुरक्षा का हल नहीं है. रिएक्टर निर्माण के अनियंत्रित खर्च और देश के ऊर्जा-विषयक वैग्यानिक शोध के बजट का बड़ा हिस्सा हड़प लेने के बाद भी देश की कुल बिजली में परमाणु बिजली का हिस्सा तीन प्रतिशत से भी कम है. बीसीयों नए अणु-बिजलीघरों से वर्ष २०३० तक इसे ७-८% करने की योजना है. जबकि केन्द्रीकृत बिजली-उत्पादन और फ़िर इसे शहरों तक पहुँचाने में तीस प्रतिशत के करीब बिजली बर्बाद होती है. युरेनियम खनन, रिएक्टर-निर्माण की लागत इत्यादि बड़े खर्चों को छुपाने के बाद भी परमाणु बिजली अन्य स्रोतों की बजाय बहुत महँगी होगी. परमाणु बिजली के समर्थन में इसके कार्बन-मुक्त होने और जलवायु-परिवर्तन के संकट का हल होने का दावा किया जाता है. लेकिन फ़ुकुशिमा की घटना का एक ज़रूरी सबक यह भी है कि भविष्य के अकल्पनीय पर्यावरणीय बदलावों के समक्ष आज के बनाए रिएक्टर-डिजाइन कारगर होंगे, इसका शुतुर्मुर्गी दम्भ परमाणु-अधिष्ठान को छोड़ देना चाहिये.

ऊर्जा-सुरक्षा का सवाल सिर्फ़ परमाणु और कोयले की बिजली या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों के बीच चुनाव का सवाल नहीं है. यह ऊर्जा उत्पादन और उपभोग से जुड़ी पूरी राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का सवाल है. पिछ्ले पंद्रह सालों में बिजली-उत्पादन दुगुना करने के बाद भी बिजली के बिना रहने वाले गाँवों की संख्या में कोई खास फ़र्क नहीं पड़ा है. मॉल, विग्यापन और हाईवे केंद्रित आज के विकास में ऊर्जा का अतिशय अपव्यय होता है. साझा उत्पादन, सुचारू सरकारी परिवहन इत्यादि सकारात्मक कदम और एक ही चीज के कई ब्रांडों से बाज़ार पाटने के पूँजीवादी अपव्यय से पिंड छुड़ाने जैसे कई आमूलचूल परिवर्तनों के बिना ऊर्जा का कोई भी स्रोत तेजी से लुप्त होते प्राकृतिक संसाधनों के बीच हमें ऊर्जा-सुरक्षा नहीं दे सकता.

फ़ुकुशिमा त्रासदी के साथ ही परमाणु विनाश का सवाल पूरी भयावहता के साथ हमारे सामने उपस्थित हो गया है. परमाणु-खतरे से मुक्त और विकास की जन-केंद्रित परिभाषा वाला एक समाज गढ़ने की जिम्मेवारी इस देश के जनवादी लोगों पर है. परमाणु-डील के मुद्दे पर सरकार गिराने वाली माकपा की सरकार जब खुद ही पश्चिम बंगाल के हरिपुर में अणु-बिजलीघर बनवाने में लगी हो तो यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है.

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