फ़ुकुशिमा के अंधेरे में छलाँग लगाने को तैयार भारत



अणुमुक्ति

११ मार्च की सुनामी के बाद फ़ुकुशिमा के कम-से-कम चार अणु-बिजलीघरों में हो रहा विकिरण का जहरीला रिसाव अब तक थमा नहीं है और इस बीच जर्मनी, पोलैंड, स्वीडन, इटली और फ़्रांस समेत पूरे युरोपीय यूनियन ने परमाणु उद्योग के पुनरीक्षण के अदेश दिये हैं. चीन, जहाँ भारत के अलावा अणु-भट्ठियों के सबसे बड़ी योजना चल रही है, ने भी अपने परमाणु कार्यक्रम की समीक्षा के बाद ही आगे बढने के संकेत दिये हैं. फिलीपीन्स, जोर्डन, और वियतनाम जैसे कई देशों ने, जो अपना परमाणु कार्यक्रम शुरु करने वाले थे, भी फ़ुकुशिमा के बाद पुनर्विचार शुरु कर दिया है. वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति बरक ओबामा ने नई पीढ़ी के सुरक्षित रिएक्टरों को अपना समर्थन दिया है और २०१२ के बजट में अमेरिकी संसद से परमाणु उद्योग के लिये ३६ बिलियन डॉलर की लोन गारंटी का अनुरोध किया है. वहीं  अमेरिका फ़ुकुशिमा के बाद भी भारत के साथ होने वाले परमाणु-व्यापार को लेकर आश्वस्त है. ६ अप्रैल को दक्षिणी और मध्य एशिया मामलों के जिम्मेवार उपसचिव राबर्ट ब्लेक ने अमेरिकी संसद में यह बयान दिया कि भारत ने अमेरिका से हुए परमाणु करार को लेकर  अपनी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं दिखाई है.

भारत और अमेरिका फुकुशिमा की भयावह त्रासदी के बाद भी अपने परमाणु-दम्भ पर कायम रहने वाले गिने-चुने देशों में हैं. ज़ाहिर है २००५ में हुए दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्रों के मिलन को फ़ुकुशिमा की मानवीय त्रासदी अबतक पिघला नहीं पा रही है. और ना ही दुनिया में लोकतंत्रों के समर्थन के लिये हुई इस ग्लोबल पार्टनरशिप को इस बात से कोई फ़र्क पड़ता है कि जैतापुर से लेकर हरियाणा के फ़तेहाबाद और आंध्र के कोव्वाडा तक, पंचायतों और जन-सुनवाइयों जैसी लोकतंत्र की जमीनी इकाइयों ने परमाणु परियोजनाओं को ठुकरा दिया है. हर जगह भारी पुलिसिया दमन के बीच लोकतंत्रों के इस मिलन का खेल जारी है. पिछले साल परमाणु उपादेयता विधेयक को लेकर भारत सरकार ने अपने ही स्वास्थ्य, जल-संसाधन, वन एवं पर्यावरण इत्यादि कई मंत्रालयों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए इस खतरनाक कानून को मंजूरी दी. जैतापुर को दी गई मंजूरी के समय भी पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि उनपर पर्यावरणीय चिंताओं से ऊपर परमाणु-करार के अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भों को तरजीह देने का दबाव था. खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह १९९० के दशक में बतौर वित्तमंत्री परमाणु ऊद्योग के खराब प्रदर्शन को लेकर टिप्पणियाँ करने और उसका बजट कम करने के लिए जाने जाते हैं. हाल में हुए विकीलीक्स के खुलासों ने यह भी जाहिर कर दिया है कि  परमाणु-करार को लेकर संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई वोटिंग के लिए जमकर धांधली हुई. लोकतांत्रिक और साफ़ सार्वजनिक जीवन के उन सिद्धांतों की धज्जियाँ सरेआम उड़ाई गईं जिनकी दुहाई देते मनमोहन सिंह और संप्रग की नेता सोनिया गांधी नहीं थकते.

तो, आखिर वे कौन से व्यापक राष्ट्रीय हित हैं जिनकी खातिर परमाणु उद्योग की आर्थिक असफलता, इसकी खतरनाक दुर्घटनाओं और तीखे जन-विरोध सबको नजरंदाज किया जा रहा है.

परमाणु राजनीति में आए अन्तर्राष्ट्रीय बदलाव और न्यूक्लियर डील
भारत परमाणु करार के बाद अणु-ऊर्जा के महत्वाकांक्षी विस्तार की ओर अग्रसर है और देश के विभिन्न हिस्सों में कुल ३९ नए रिएक्टर प्रस्तावित हैं. लेकिन भारत के शासकवर्ग और इसके चियरलीडर मीडिया के लिए परमाणु-करार का मतलब अणु-ऊर्जा की उपलब्धि से कहीं ज़्यादा है. १८ जुलाई २००५ को अमेरिका के साथ साझा घोषणापत्र से लेकर भारतीय संसद में हुई अविश्वास-प्रस्ताव की बहस तक,  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, और प्रणव मुखर्जी से लेकर सरकार-समर्थक मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग ने भी इस करार के दूरगामी लाभों का हवाला दिया. देश परमाणु प्रतिष्ठान को भी पूरी तरह इस करार के बारे में विश्वास में नहीं लिया गया था और चंद सर्वोच्च पदस्थ अधिकारियों को छोड़कर खुद परमाणु ऊर्जा आयोग और इससे जुड़े संस्थानों का एक धड़ा शुरुआती सालों में असमंजस में रहा. परमाणु ऊर्जा विभाग की २००४ में प्रकाशित दीर्घकालीन नीति में कहीं भी आयातित रिएक्टरों की ज़रूरत की चर्चा न होना और इसके २००८ के संस्करण के आंकड़ों में आनन-फ़ानन में ४० गीगावाट की आयातित परमाणु-क्षमता को देश के लिये ज़रूरी बताना इसकी ओर इशारा करता है.

दरअसल, परमाणु करार में मूलतः १९७४ के बाद लगी उन पाबंदियों से छुटकारा मिला जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने भारत पर इसके शांतिप्रिय विस्फ़ोट के पहले पोखरण परीक्षणों के बाद लगाई थीं. इन पाबंदियों की अगुआई तब खुद अमेरिका ने की थी. अब इस करार के तहत अमेरिका ने अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) के बुनियादी नियमों - जो इन्हें परमाणु अप्रसार संधि (NPT) से बाहर के देशों को परमाणु तकनीक संबंधी सहयोग देने से रोकते हैं - को झुकाते हुए उन्हें भारत के लिए अपवाद का रास्ता खोलने पर मजबूर किया. जार्ज बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने ऐसा अपने बदलले हुए रणनीतिक हितों के लिये किया. सत्तर और अस्सी के दशक में सोवियत रूस के साथ परमाणु हथियारों की होड़ के साथ ही अमेरिका, और रूस के लिये भी, यह ज़रूरी थी कि इन हथियारों तक बाकी देशों की पहुँच रोकी जाए. नब्बे के दशक में सोवियत रूस के पतन के साथ ही यह लक्ष्य ओझल हो गया. १९९५ में एन.पी.टी. को अनिश्चितकालीन विस्तार देने के बाद भी अमेरिका के लिए परमाणु अप्रसार एक नीति और सिद्धांत के बतौर   गैर-ज़रूरी हो गया. उसने न सिर्फ़ उत्तर-शीतयुद्धकालीन विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण की व्यापक आशा पर पानी फेरा बल्कि NPT के सीमित लक्ष्यों से भी पीछा छुड़ाना शुरु कर दिया. जहां वर्ष २००० में हुई एन.पी.टी. पुनरीक्षा बैठक (NPT Review Conference,  जो हर पांच साल पर होती है) में बहुत मुश्किल से सहमति बन पाई, वहीं जार्ज बुश ने २००५ के Review Conference को असफल हो जाने दिया. १९७५ से ही इन सभी Review Conference में गैर-परमाणु शक्ति देश खासतौर पर तीसरी दुनिया और निर्गुट आंदोलन के देश विश्व के पांचों परमाणु-सम्पन्न देशों पर NPT के अनुच्छेद छः में किए गए निरस्त्रीकरण के वादे को पूरा करने के लिये दबाव डालते रहे हैं. २००५ की असफल NPT पुनरीक्षा बैठक के क्रम में ही यह साफ़ हो गया था कि अमेरिका की प्राथमिकता अब परमाणु-हथियारों के प्रसार को पूरी तरह रोकना नहीं बल्कि अपने चुनिंदा देशों को परमाणु क्षेत्र में बढ़ावा देना और वैसे देशों को दंडित करना जिन्हें अमेरिका अपने हितों के प्रतिकूल और आतंकवाद के खिलाफ़ युद्ध में अपने साथ खड़ा नहीं देख रहा था. इसी बदले हुए सिद्धांत और तर्कपद्धति के आधार पर भारत को परमाणु मदद की शुरुआत हुई जिसने कुछ ही सालों पहले विश्व-जनमत और अपनी जनता के वास्तविक हितों को ठेंगा दिखाते हुए परमाणु परीक्षण किये थे. इस प्रक्रिया के समानांतर, ईरान और इराक पर परमाणु बम अथवा व्यापक विनाश के हथियार रखने का अरोप लगाकर अमेरिका ने दबिश शुरु की. जहां इराक को तहस-नहस करने के बाद भी कोई हथियार वहाँ नहीं मिला, वहीं खुद IAEA के यह मानने के बावजूद कि कम-से-कम अब तक ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिप्रिय है, अमेरिका ईरान पर अपनी गुंजलकें कसता जा रहा है जबकि मध्य एशिया में ज़्यादा खतरा इज़राएल के अवैध परमाणु-हथियारों और उसकी विस्तारवादी नीतियों के कारण है. 

अपने रणनीतिक हितों के अलावा, भारत को परमाणु सहयोग शुरु करने में अमेरिकी व्यावसायिक हितों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. सत्तर के दशक से मंदी झेल रही अमेरिकी परमाणु कम्पनियों का पुनर्वास इस डील से होना था जिससे उन्हें १० बिलियन डॉलर से अधिक का व्यापार मिलने वाला है. पिछले तीस सालों में थ्री-माइल आइलैंड और चेर्नोबिल सरीखी भीषण परमाणु दुर्घटनाओं ने जहाँ परमाणु कम्पनियों के कारोबार को बुरी तरह प्रभावित किया था वहीं तीसरी दुनिया में इस तकनीक के करोबार पर परमाणु-अप्रसार के सरोकारों से भी असर पड़ रहा था. परमाणु-ऊर्जा और परमाणु-बम बनाने की तकनीक लगभग एक जैसी होती है और ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देशों ने परमाणु ऊर्जा के नाम पर मिलने वाली विदेशी मदद के सहारे ही अपने सामरिक कार्यक्रम विकसित किए हैं. लेकिन १९५३ के अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़नहावर के 'Atoms for Peace' नीति के से लेकर खुद NPT के अनुच्छेद चार में परमाणु हथियार न विकसित करने के एवज में इस संधि के हस्ताक्षरकर्ता देशों को परमाणु के शांतिप्रिय प्रयोग हेतु मिले  निर्बाध हक तक, अन्ततः हथियार-निर्माण में काम आने वाली परमाणु ऊर्जा तकनीक को पूरी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का भरपूर समर्थन मिलता रहा है. इस तकनीक के बेजा इस्तेमाल से रोकने के लिये IAEA की निगरानी से लेकर हाल के वर्षों में हथियारों में काम न आ सकने वाली परमाणु तकनीक (proliferation-proof technology) का ही निर्यात समेत कई वैधानिक और तकनीकी उपक्रम मौजूद हैं, लेकिन इन सबके बावजूद जिन देशों को बम बनाना है वे बना ही रहे हैं. खुद अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यह मानती है कि पिछले दशकों में शांतिप्रिय उद्देश्यों के नामपर परमाणु तकनीक हासिल करने वाले देशों में बीस से अधिक देश ऐसे हैं जो बम-निर्माण की चौखट पर खड़े (Threshold Nuclear States) हैं और उन्हें बम बनाने के लिये मात्र राजनीतिक निर्णय की ज़रूरत है. इस बढ़ते खतरे के बावजूद, परमाणु मुद्दे पर यह दोमुँहापन इसलिये कायम है कि परमाणु कम्पनियों के मुनाफ़े पर कोई आँच न आए. यह स्थिति बहुत कुछ ऐसी ही है जो ग्लोबल वार्मिंग पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की हालत है जहाँ तमाम सदिच्छाएँ और निर्णीत प्रदूषण-नियंत्रण रेखाएँ पूंजीवादी हवस के आगे धरी की धरी रह जाती हैं.

तो बदली राजनीतिक स्थिति और आर्थिक मंदी के माहौल में, अमेरिका के लिए भी यह ज़रूरी हो गया था कि वह परमाणु अप्रसार के सिद्धांतों को ताक पर रखते हुए अपने व्यावसायिक और रणनीतिक हितों का पोषण करे. परमाणु अप्रसार एक बहुत ही सीमित सिद्धांत है और जबतक महाशक्तियों के पास हज़ारों परमाणु बम बने रहते हैं तब तक नित नए देशों को बम का आकर्षण लुभाता रहेगा. लेकिन फिर भी, चूँकि नए देशों के पास बम उपलब्ध होने से अस्थिरता बढ़ेगी और निरस्त्रीकरण की राह मुश्किल होती जाएगी क्योंकि तकनीकी तौर पर परमाणु बमों को नष्ट करना भी एक मुश्किल प्रक्रिया है और अनिवार्यतः यह गोपनीय एजेंसियों के हाथों होता है इसलिये बमों के छुपे अस्तित्व की सम्भावना बनी रहती है. इन्हीं वजहों से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु अप्रसार की भी अपनी प्रासंगिकता बनी हुई है. इसीलिये भारत-अमेरिका परमाणु करार का विरोध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निरस्त्रीकरण समर्थक समूहों द्वारा भी किया गया था. सितम्बर २००८ में जब भारत पर लगी परमाणु-कारोबार संबंधी बंदिशें हटाने के लिये परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) की बैठक विचार कर रही थी, तो नागासाकी से परमाणु-बम के भुक्तभोगी हिबाकुशा के एक समूह ने पत्र लिखकर एन.एस.जी. को कहा कि यह एक बुरी परम्परा की शुरुआत है. दुनिया में परमाणु बम बनाने के लिये नए आकर्षण पैदा होंगे जब दूसरे देश देखेंगे कि अपने विशालकाय बाज़ार को अमेरिका के लिये खोलकर भारत जैसा देश परमाणु-परीक्षण के बाद प्रतिबंधों और अन्तर्राष्ट्रीय पाबंदियों को हटवा सकता है.

यहाँ यह भी ध्यान रखना ज़रूरी होगा कि व्यापक निरस्त्रीकरण के कोण से परमाणु डील के इस अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के उलट, भारत में इस डील का विरोध इस बात पर टिका था कि इस करार के बाद भारत की परमाणु-परीक्षण करने की क्षमता छिन जाएगी और भारत का स्वदेशी परमाणु-ऊर्जा कार्यक्रम बाधित होगा. विरोध की इस बेवकुफ़ाना ज़मीन पर भाजपा के साथ-साथ देश का वामपंथ भी खड़ा था और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि परमाणु डील का विरोध करने के बावजूद पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार प्रदेश के नाज़ुक भौगोलिक इलाके में स्थित हरिपुर में परमाणु रिएक्टर लगाने पर आमादा है. काँग्रेस से लेकर भाजपा और वामपंथ तक, परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर ऐसी भयावह आम-सहमति क्यों है, इसको समझना भी यहाँ ज़रूरी है.

भारत ने इस डील को अपनी बढ़ती हुई ताकत के रूप में देखा और वास्तव में यह इसके परमाणु कार्यक्रम की वैधता पर मुहर जैसा था । इस हैसियत को हासिल करने के लिये भारत ने उन सभी साधनों का इस्तेमाल किया जो उसके पास थे- चीन के खिलाफ़ अमेरिका का साथ दे सकने की भू-रणनीतिक क्षमता का आकर्षण, अमेरिका के आतंक के खिलाफ़ युद्ध में उसका समर्थन, अरबों डॉलरों वाले परमाणु बिजली क्षेत्र में अमेरिकी कम्पनियों को हिस्सा देने का लालच और साथ ही अमेरिकी बाजार-शक्तियों के साथ उस संश्रय का उपयोग जो भारत ने अपने फैलते मध्यवर्गीय उपभोक्ता-वर्ग और अमेरिका-स्थित संतसिंह चटवाल जैसे कारोबारियों के आधार पर पिछले दो दशकों में बनाया है. परमाणु परीक्षणों के बाद भी दुनिया की न्यूक्लियर बिरादरी में इस न्यौते से भारतीय सरकार और मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को अपने उस सुपर पावर सपने को सच करने का रास्ता नज़र आ गया. यह सपना दूर के रिश्ते में भारतीय ठहरने वाले किसी व्यक्ति की विदेश में सफलता से लेकर सॉफ़्ट्वेयर उद्योग में सस्ता श्रम बेचने वाले एन.आर.आई में, हमें जहाँ कहीं भी दिख जाता है, हम चिपक जाते हैं.

भारत का परमाणु कार्यक्रम
भारत का परमाणु कार्यक्रम दुनिया की शुरुआती परमाणु परियोजनाओं में से एक है. होमी जहाँगीर भाभा ने टाटा ट्रस्ट के साथ मिलकर Tata Institute of Fundamental Research (TIFR) की नींव 1944 में ही रख दी थी और आज़ादी के एक साल के अन्दर और देश का संविधान बनने के पहले ही जवाहरलाल नेहरु ने 15 अप्रैल 1948 को परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना हेतु परमाणु ऊर्जा कानून (Atomic Energy Act)  को मंजूरी दे दी थी. यह स्वाधीनता संग्राम के आखिरी दशकों में नेहरू के नेतृत्व में भावी भारत के कांग्रेसी सपने का ही विस्तार था, जो गांधी के सपनों के भारत से काफ़ी अलग होना था. नेहरू ने अपनी प्राथमिकताएँ पहले ही तय कर दी थीं कि उनका भारत आधुनिक तकनीक-केंद्रित पश्चिमी ढंग का केंद्रीकृत संसदीय लोकतंत्र होगा. परमाणु तकनीक से नेहरु जी को विशेष लगाव था और उनका मानना था कि जैसे भाप के ईंधन की खोज में पश्चिमी देश अगे निकल गए तो उन्होंने कई सदियों तक दुनिया को राह दिखाई, वैसे ही अगर परमाणु तकनीक ऐसी चीज़ है जिसमें भारत अगुआ बन जाए तो दुनिया के विकसित मुल्कों के साथ इस मामले में बराबरी के स्तर पर सहयोग और नेतृत्व कर सकता है. अब परमाणु डील के पिछले रास्ते से ही सही, परमाणु शक्तियों की बिरादरी में जगह मिलने की इसी हड़बड़ी में हमारे देश के नेता, मीडिया और मध्यवर्ग इस तकनीक के खतरे, भारतीय सन्दर्भ में इसकी प्रासंगिकता और इस डील के दौरान हुए भ्रष्टाचार, सबको नजरअंदाज करने पर उतारू हैं.

नेहरू के आधुनिक भारत के मंदिरों के निर्माण में न भारत की असली ज़रूरतों का ध्यान रखा जाना था और न ही हमारी ज़मीनी सच्चाईयों का. इन आधुनिक मंदिरों ने भारत को कोई वास्तविक विकास तो नहीं ही दिया, सामाजिक हकीकतों से भी दूर रखा और इन आधुनिक मंदिरों के पुजारी भी वही बने रहे जो सदियों से महंती कर रहे थे. इसमें आश्चर्य नहीं कि मेरिट और तकनीकी उच्चता के नाम पर परमाणु ऊर्जा विभाग ने अपने परिसर में अबतक सामाजिक न्याय को लागू नहीं होने दिया है और आरक्षण-विरोधी मुहिम में देश के आईआईटी और एम्स जैसे उच्च-तकनीकी केंद्र सबसे आगे रहे हैं. तकनीकी विकास और देश की ज़रूरतों में जबतक एकसूत्रता नहीं रहेगी, तबतक सबसे पढा-लिखा तबका भी देश और समाज की ज़रूरी हलचलों के खिलाफ़ खडा मिलेगा. बहरहाल, भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को देश के लोकतंत्र से ऊपर रखा गया है. परमाणु से जुड़े मामले शुरु से सीधे प्रधानमंत्री के दायरे में आते हैं और राष्ट्रीय बजट से लेकर auditing तक इस पर कोई खुलापन नहीं है.

भारत शुरू से दुनिया भर में परमाणु हथियारों के सफाए के लिए मुहिम चलाने वाले देशों में शामिल रहा है. बावजूद इसके इसने कांग्रेस के शासन काल (1974) में शांतिपूर्ण विस्फोट और दोबारा भाजपा के शासन काल (1998) में परमाणु बम परीक्षण किया. ज़ाहिर सी बात है कि परमाणु परीक्षण एक दिन की तैयारी में संभव नहीं होता, इसके लिए वर्षों  के वैज्ञानिक शोध, परीक्षणों और तैयारी की एक पूरी श्रृंखला की जरूरत होती है. दुनियाभर में सबको बिना शर्त परमाणु बम नष्ट करने चाहिए, इस तर्क के आधार पर भारत ने खुद को एन.पी.टी. के अप्रसार तंत्र से और सी.टी.बी.टी. की परमाणु परीक्षण पर रोक की व्यवस्था से बाहर भी  रखा. भारत द्वारा 1974 के परमाणु परीक्षण में विदेशी तकनीक, खास तौर पर कनाडाई, अमेरिकी और रूसी मदद से हासिल क्षमता और तजुर्बे का इस्तेमाल किया गया था ।

भारत की घोषित शांतिप्रिय परमाणु नीति में हथियार-निर्माण की मंशा शुरू से शामिल थी या नहीं, इस पर शोधकर्ताओं में अभी तक मतभेद बना हुआ हैं, लेकिन इतना तो तय है कि भारत ने दुनिया भर में समय-सीमा के अन्तर्गत और पूर्ण निरस्त्रीकरण की वकालत के बीच भी हथियार निर्मित करने के अपने विकल्प को तकनीकी तौर पर खुला रखा और अपनी क्षमता सचेत रूप से बढ़ाई. भारत ने इस बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन और तीसरी दुनिया की एकता का नारा भी बुलंद किया और अपने लिये मौजूदा विश्व-व्यवस्था में ही जगह बनाने के बाद इन सिद्धांतों को तिलांजलि देने में थोड़ी भी झिझक नहीं दिखाई. इस तरह भारत के शासक वर्ग ने विकसित और विकासशील दोनों दुनियाओं को साधा और इस प्रक्रिया में देश के अंदर की प्रगतिशील जमात को अपने चरित्र के बारे में भ्रम में रखा. आज भी, प्रदूषण-उत्सर्जन के लक्ष्य तय करने के मसले पर तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक सौदेबाजियों में किसानों और मजदूरों के संरक्षण के नाम पर मूलतः देश के बड़े औद्योगिक घरानों का हित ही साधा जा रहा है. हालिया सम्पन्न कोपेनहेगन सम्मेलन में भारत द्वारा विकासशील देश होने के नाम पर अमेरिका समर्थित प्रस्तावों में अपने लिये जगह बनाने और अन्ततः उसी के साथ खड़े होने को साफ़ देखा जा सकता है.

पूरे सरकारी समर्थन और संरक्षण के बावजूद परमाणु ऊर्जा विभाग अपने ही निर्धारित लक्ष्यों पर हर बार बुरी तरह असफल रहने के मामले में भारत सरकार का सबसे निकम्मा विभाग साबित हुआ है.१९६२ में खुद होमी भाभा ने दावा किया था  कि १९८७ तक भारत में १८-२० हज़ार मेगावाट की परमाणू बिजली क्षमता होगी. असल में १९८७ में परमाणु बिजली क्षमता १.०६ हज़ार मेगावाट - भाभा के आकलन का लगभग पाँच प्रतिशत - रही. भाभा के बाद परमाणु ऊर्जा आयोग की कमान सम्भालने वाले विक्रम साराभाई ने खुद स्वीकार किया कि यह कार्यक्रम अपने लक्ष्य से बुरी तरह पिछड़ चुका है. इस खाई को पाटने के लिये १९७२ से प्रतिवर्ष ५०० मेगावाट क्षमता के रिएक्टर जोड़ने की बात साराभाई ने की, लेकिन ५०० मेगावाट का पहला रिएक्टर तारापुर में कुल पैंतीस साल बाद २००५ में अस्तित्व में आया. इस पिछड़ेपन को आमतौर पर १९७४ के परीक्षण के बाद आने वाली दिक्कतों के माथे मढ़ दिया जाता है, लेकिन १९८४ में भी परमाणु ऊर्जा आयोग की योजना के मुताबिक वर्ष २००० तक १०,००० मेगावाट बिजली का लक्ष्य घोषित किया गया था. यह १९८९ की योजना में भी दुहराया गया और यह विश्वास दिखाया गया कि यह लक्ष्य पूरी तरह प्राप्य है. २००३ में जब आयोग इस लक्ष्य के नज़दीक भी नहीं पहुँच पाया तो आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोडकर ने अगले चार सालों में ६८०० मेगावाट बिजली का नया लक्ष्य सामने रखा. २०१० में कुल उत्पादन ४१२० मेगावाट रहा जो देश में पैदा कुल बिजली का तीन प्रतिशत से भी कम है. ध्यान रहे कि भारत में दूरस्थ बिजलीघरों से शहरों और गावों के उपभोग केंद्रों तक बिजली पहुँचाने के दौरान होने वाला नुकसान (Transmission loss) तीस प्रतिशत से भी ज़्यादा है.

विदेशी करार दरअसल परमाणु ऊर्जा विभाग के लिये आपनी नाकामियाँ छुपाने और आयातित रिएक्टरों के भरोसे नए लक्ष्यों का डंका बजाने का बहाना बन गए हैं. नए दावों के मुताबिक भारत २०२० तक २०,००० मेगावाट, २०३० तक ६३,००० मेगावाट और २०५० तक २७५,००० मेगावाट बिजली परमाणु ऊर्जा से बनाएगा. २०५० तक भारत की कुल बिजली का ३५ प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से आएगा. अनुमानों के मुताबिक अगर सबकुछ योजना के मुताबिक चलता रहा तो आने वाले बीस सालों तक इसमें प्रतिवर्ष ३५ से ४० हज़ार करोड़ तक निवेश की दरकार होगी, जबकि परमाणु ऊर्जा विभाग का इतिहास यह बताता है कि इसके पिछले दस रिएक्टर अपने निर्धारित समय के वर्षों देर से शुरु हो पाए और इससे उनकी लागत में ३०० प्रतिशत से अधिक का इज़ाफ़ा हुआ.

परमाणु ऊर्जा का विस्तार और इसकी समस्याएँ
परमाणु ऊर्जा के अभी के उत्पादन से सौ गुना विस्तार की यह महत्वाकांक्षी योजना कई ऐसे अनिश्चित कारकों पर टिकी है, जिनपर न परमाणु ऊर्जा आयोग का नियंत्रण है, न खुद भारतीय सरकार का. इस पूरी योजना का एक महत्त्वपूर्ण शुरुआती हिस्सा आयातित रिएक्टरों पर टिका है जिनमें कई तरह की बाधाएँ हैं - इन रिएक्टरों की कीमत बहुत ज़्यादा होगी, इनसे बनने वाली बिजली भी बहुत महँगी होगी और उपभोक्ताओं को रास न आने पर सरकार को इसका खर्च वहन करना पड़ेगा जिससे एनरॉन सरीखी बड़ी असफलता का सामना करना पड़ सकता है. साथ ही, देश के हर हिस्से में इन रिएक्टरों को लेकर जुझारू प्रतिरोध हो रहे हैं जिनसे इसमें बाधा आएगी, अगर ये प्रस्तावित परियोजनाएँ रोकी न जा पाएँ तब भी इनमें स्थानीय वजहों से देर ज़रूर लगेगी और तब इनकी लागत बढ़ती जाएगी. फ़ुकुशिमा के बाद युरोप में परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार चल र्हा है और इस कारण हुई देरी और रिएक्टर सुरक्षा नियमों में आनेवाली कड़ाई भी महँगी पड़ने वाली है. परमाणु ऊर्जा आयोग के अनुसार चालीस हज़ार मेगावाट क्षमता भर विदेशी रिएक्टर आयात करने के बाद भारत का द्वितीय-स्तरीय परमाणु कार्यक्रम शुरु होगा, जो वस्तुतः फास्ट ब्रीडर तकनीक पर आधारित होगा. फास्ट ब्रीडर तकनीक बहुत महँगी और अत्यधिक खतरनाक साबित हुई है जिसकी वजह से जापान और फ़्राँस जैसे देशों ने इससे पीछा छुड़ा लिया है. लेकिन भारत न सिर्फ़ इस तकनीक के व्यामोह पर कायम है बल्कि इस आशा पर कि वर्ष २०२५ तक व्याव्सायिक रूप से उपयोग होने लायक फास्ट ब्रीडर रिएक्टर बनाने लगेगा, इस समूची महत्वाकांक्षी योजना को अंजाम दे रहा है. फास्ट ब्रीडर तकनीक में रिएक्टर के अंदर शीतक के रूप में द्रवित सोडियम का इस्तेमाल होता है जिसे सम्भालना बहुत ज़्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि सोडियम गलती से भी हवा या पानी के सम्पर्क में आने पर विस्फ़ोट करता है. इसी तरह भारतीय परमाणु योजना का तीसरा चरण २०४० के आस-पास शुरु होगा जिसमें इन फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों से प्राप्त प्लूटोनियम, थोरियम के साथ मिलाकर ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाना है. अभी थोरियम तकनीक भी पूरी दुनिया में कहीं नहीं है, सिर्फ़ कुछ सैद्धांतिक शोध इस क्षेत्र में हुए हैं. ज़ाहिर है, परमाणु बिजली के भरोसे २०५० तक की यह योजना एक झाँसे से अलग कुछ नहीं है.


फ़ुकुशिमा में विनाश और भारत के लिये सबक
जापान में चल रही परमाणु तबाही अभी थमी नहीं है. उत्तर-पूर्वी जापान के सेन्दाई प्रांत स्थित फ़ुकुशिमा दाई-इचि में कुल छः रिएक्टर हैं जिनमें से चार पूरी तरह बेकाबू हो गये है. समुद्र में विकीरण की मात्रा सामान्य से ७५ लाख गुना अधिक बताई जा रही है और फ़ुकुशिमा के रिएक्टरों से कुल ११,५०० मिलियन लीटर विकीरण-युक्त पानी प्रशांत महासागर में छोड़ा गया है. फ़ुकुशिमा रिएक्टरों की संचालक कम्पनी टेपको के मुताबिक ऐसा इसलिये करना पड़ा कि रिएक्टर नम्बर-१ से कोर से निकल रहे और भी अधिक जहरीले रिसाव को जमा करने के लिये जगह बनाई जा सके. यह सब रोंगटे खड़े कर देने वाली खबरें हैं. ११ मार्च की भयावह सुनामी ने इन रिएक्टरों की शीतन-व्यवस्था (coolant) को छिन्न-भिन्न कर दिया था और साथ ही आपातस्थिति में शीतन के लिये प्रयोग होने वाले डीजल-चालित जेनेरेटरों को भी नाकाम कर दिया था. लगातार शीतन के अभाव में रिएक्टर के अंदर हज़ारों डिग्री तापमान पर तप रहा परमाणु ईंधन बेकाबू हो गया है. उसे ठंडा करने के लिये पिछले हफ़्ते से सैकड़ों टन समुद्र का पानी उड़ेला जा रहा है. पहले तो बाहर से फेंके जा रहे इस पानी ने भाप बनकर फ़ुकुशिमा दाई-इचि के छह में से चार रिएक्टरों के बाहरी कंक्रीट आवरण को उड़ा दिया, वहीं अब खबर आ रही है कि समुंदर के पानी के साथ आया सैकड़ों टन नमक इन रिएक्टरों में जमा हो गया है और यह रिएक्टर के केंद्रक को ढँकने वाले स्टील में दरार पैदा कर सकता है. साथ ही, यह नमक परमाणु ईंधन ने ऊपर मोटी परत बनकर इकट्ठा हो रहा है जिससे उसे ठंढा करना और भी मुश्किल होता जाएगा. वैसे पानी की आपूर्ति अभी भी पर्याप्त नहीं हो पायी है और लगातार भयानक विकिरण और गर्मी छोड़ती परमाणु ईंधन की छड़ों के २ मीटर तक पानी से बाहर होने आशंका है.  इन रिएक्टरों में पड़े पहले के शेष ईंधन (spent fuel) के भी बाहरी वातावरण के सम्पर्क में आने की पुष्टि हुई है. यह शेष ईंधन भी अत्यधिक विकिरण-कारी और गरम होता है. 

२५ मार्च को फ़ुकुशिमा दाइ-इचि नम्बर-३ रिएक्टर में तीन मजदूरों की हालत गम्भीर हो गई जब रिएक्टर से रिस रहा भारी विकिरण-युक्त पानी से उनके पैर जल गये. दूषित पानी रिएक्टर नंबर १ और २ से भी निकल रहा है और इससे यह अनुमान भी लगाया गया कि इन रिएक्टर के मूल बरतन (main vessel) में दरार आई है जिसके अंदर सामान्य स्थिति में रेडियोधर्मी ईंधन जलाया जाता है जिसके ताप से पानी गर्म किया जाता है और फिर बिजली बनती है. फुकुशिमा रिएक्टरों की संचालक कंपनी टेपको के अनुसार अब्तक १०,५००

सीटीबीटी ऑर्गनाइजेशन (CTBTO) के आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना से हुए विकिरण-रिसाव की मात्रा अबतक ही १९८६ में रूस में हुई चेर्नोबिल दुर्घटना के आधे से अधिक पहुँच चुकी है. चेर्नोबिल अब तक दुनिया की सबसे बड़े परमाणु-दुर्घटना है जिससे रूस और युरोप के एक बड़े हिस्से में दशकों तक रेडियेशन-जनित कैंसर और अन्य बीमारियाँ होती रही हैं और हाल के आंकड़ों के मुताबिक कुल नौ लाख लोग चेर्नोबिल के शिकार हुए हैं. दुनिया की बाकी सरकारों की तरह ही जापान की सरकार भी परमाणु-हादसों से जुड़ी सूचनाएँ छुपाती रही है और फुकुशिमा दुर्घटना में भी सरकारी लीपापोती के आरोप लग रहे हैं. खुद जापान के परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व-अध्यक्ष ने कहा है कि सरकार लोगों को अंधेरे में रख रही है. अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों और अंतर्रराष्ट्रीय परमाणु-विशेषग्यों ने जापान सरकार की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं. अमेरिका ने तो अपने उपग्रहों से मिली जानकारी के अधार पर जापान में अपने नागरिकों को रिएक्टर से ८० किमी दूर चले जाने को कहा है जबकि जापान सरकार ने पिछले दो हफ़्तों में इस दायरे को ३ किमी से धीरे-धीरे बढाकर अब ३० किमी किया है. रिएक्टरों के आस-पास स्थित विकिरण मापन यंत्रों की सूचना भी जापानी एजेंसियाँ ठीक-ठीक नहीं जारी कर रही हैं. जब विकिरण का स्तर बढता है तो जारी सूचना का अन्तराल बढाकर एक से डेढ़ घंटे कर दिया जाता है जबकि विकिरण के निचले स्तरों पर हर दस मिनट पर विकिरण की माप जारी की जा रही है. साथ ही, जापानी एजेंसियां टेपको (Tokyo Electric Production Company) और नीसा (Nuclear and Industrial Safety Authority) वातावरण में सिर्फ़ सीज़ियम-१३७ और आयोडीन-१३१ की मात्रा की जानकारी दे रही हैं और आयोडीन-विकिरण की काट के लिये लोगों को आयोडीन की गोलियाँ बाँटीं जा रहीं हैं, जबकि इस दुर्घटना से ट्रीशियम, स्ट्राँशियम  और प्लूटोनियम जैसे कई अन्य रेडियोधर्मी जहर भी फैल रहे हैं. इस दुर्घटना से निपटने में अपनी जान जोखिम में डाल रहे फ़ुकुशिमा फ़िफ़्टी नाम से प्रचारित किये जा रहे जाँबाज दरअसल अधिकतर वहाँ ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं, जिनकी जान की वैसे भी पूरी दुनिया में सस्ती समझी जाती है.

हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भारत के रिएक्टरों की सुरक्षा-समीक्षा के लिये कहा है, लेकिन यह पूरी जाँच कागजी कारवाई से ज़्यादा कुछ साबित नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में परमाणु-उद्योग के नियमन के लिये जिम्मेदार संस्था (परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड- AERB) खुद परमाणु ऊर्जा अयोग (DAE) के मातहत काम करती है. इस विरोधाभास पर देश के कई प्रमुख विशेषग्य और जनपक्षधर समूह लगातार आवाज़ उठाते रहे हैं. भारत में पहले से चल रहे अणु-बिजलीघर भी फ़ुकुशिमा जैसी त्रासदी की सम्भावना से मुक्त नहीं हैं. मुम्बई के बहुत नजदीक स्थित तारापुर रिएक्टर अमेरिकी कम्पनी जी.ई. (General Electrics) के उसी मार्क-वन डिज़ाइन के रिएक्टर हैं, जो फ़ुकुशिमा में हैं. इन रिएक्टरों में द्वितियक नियंत्रण ढाँचे (secondary containment structure) का अभाव है और शेष ईंधन (spent fuel) रिएक्टर के ऊपरी हिस्से में जमा होता है. तारापुर में पिछले चार दशकों से इकट्ठा यह अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा अमेरिका न तो वापस ले जा रहा है और ना ही भारत को इसे पुनर्संश्लेषित (reprocessing) करने दे रहा है. उत्तरप्रदेश के नरोरा स्थित परमाणु-संयत्र में शीतन के लिये जरूरी बिजली पूरे २४ घंटे गुल होने और नियंत्रण-कक्ष की मशीनें फुँक जाने की घटना १९९३ में हो चुकी है.  जपान के अब तक दुनिया के सबसे सुरक्षित और तकनीक-सम्पन्न माने जाने वाले रिएक्टरों में मची तबाही और अफ़रा-तफ़री से यह साफ़ दिख जा रहा है कि परमाणु तकनीक अपनेआप में असुरक्षित है और कितनी कोशिशों के बाद भी एक छोटी सी चूक, प्राकृतिक आपदा या आतंकी घटना इन बिजलीघरों को दशकों के लिए जानलेवा बना सकती है.


परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार ज़रूरी
परमाणु बिजली भारत की ऊर्जा-सुरक्षा का भी हल नहीं है. ऊर्जा-सुरक्षा का सवाल सिर्फ़ परमाणु और कोयले की बिजली या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों के बीच चुनाव का सवाल नहीं है. यह ऊर्जा उत्पादन से जुड़ी पूरी राजनीतिक-अर्थव्यवस्था और उपभोग-संस्कृति का सवाल है. पिछ्ले पंद्रह सालों में बिजली-उत्पादन दुगुना करने के बाद भी बिजली के बिना रहने वाले गाँवों की संख्या में कोई खास फ़र्क नहीं पड़ा है. मॉल, विग्यापन और हाईवे केंद्रित आज के विकास में ऊर्जा का अतिशय अपव्यय होता है. साझा उत्पादन, सुचारू सरकारी परिवहन इत्यादि सकारात्मक कदम और एक ही चीज के कई ब्रांडों से बाज़ार पाटने के पूँजीवादी अपव्यय से पिंड छुड़ाने जैसे कई आमूलचूल परिवर्तनों के बिना ऊर्जा का कोई भी स्रोत तेजी से लुप्त होते प्राकृतिक संसाधनों के बीच हमें ऊर्जा-सुरक्षा नहीं दे सकता.

आजकल परमाणु ऊर्जा के को कार्बन मुक्त और जलवायु परिवर्तन का हल बताया जाता है. लेकिन अणु-ऊर्जा के उत्पादन में युरेनियम खनन, उसके परिवहन से लेकर रिएक्टर के निर्माण तक काफी कार्बन खर्च होता है जिसकी गिनती नहीं की जाती. अणु-ऊर्जा से बिजली बनती है, गाड़ियाँ नहीं चलतीं और पेट्रोल के अत्यधिक इस्तेमाल से हो रहे पर्यावरणीय नुकसान के मामले में यह कोई विकल्प नहीं है. मैसाचुसेट्स तकनीकी संस्थान (MIT) के अनुसार जलवायु-परिवर्तन को कुछ हद तक रोकने के लिये कम-से-कम एक हज़ार परमाणु रिएक्टर चाहिए जबकि एक रिएक्टर के निर्माण में आठ से दस साल तक लगते हैं. २०५० तक अगर पूरी दुनिया में परमाणु बिजली उत्पादन चगुना भी कर दिया जाय तो इससे होने वाली कुल कार्बन कटौती सिर्फ़ चार प्रतिशत ही होगी, जबकि २०२० के उच्चतम कार्बन उत्सर्जन के स्तर के बाद २०५० तक दुनिया में ८० से ९० प्रतिशत कार्बन कटौती की ज़रूरत होगी. ऐसे में, जलवायु परिवर्तन से बचने के लिये परमाणु विकल्प एक धोखा भर है.  साथ ही फ़ुकुशिमा ने यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन का समाधान होने की बजाय अणु-ऊर्जा केन्द्र दरअसल बदलते जलवायु और भौगोलिक स्थितियों को झेल नहीं पाएंगे क्योंकि इन्हें बनाते समय वे सारी स्थितियां सोच पाना मुमकिन नहीं जो जलावायु-परिवर्तन भविष्य में अपने साथ लेकर आ सकता है. चालीस साल पहले फ़ुकुशिमा के निर्माण के समय जापान में इतनी तेज सुनामी की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी, वैसे ही जैसे भारत में कलपक्कम अणु-ऊर्जा केंद्र को बनाते समय सुनामी के बारे में नहीं सोचा गया था. अधिकतम पचास-साठ साल तक काम करने वाले इन अणु-बिजलीघरों में उसके बाद भी हज़ारों सालों तक रेडियोधर्मिता और परमाणु-कचरा रहता है. ऐसे में, इतने लम्बे भविष्य की सभी भावी मुसीबतों का ध्यान रिएक्टर-डिजाइन में रखा गया है, यह दावा आधुनिकता और तकनीक के अंध-व्यामोह के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है.

विग्यान परमाणु कचरे का कोई समाधान अब तक नहीं ढूँढ पाया है और ज़्यादातर रिएक्टरों के आसपास ही इसे सिर्फ़ भंडारित करके रखा जाता है. एक औसत रिएक्टर साल भर में २० से तीस टन उच्च-स्तरीय जहरीला कचरा निकालता है. इसमें प्लूटोनियम-२३९ (अर्ध-आयु २४,००० साल) और युरेनियम-२३५ (७१० मिलियन वर्ष) से लेकर नेप्चूनियम, स्ट्राँशियम, सीज़ियम, और ट्रीशियम जैसे कई अन्य जहर भी होते हैं जो कई दशकों तक जानलेवा बने रहते हैं. इन जहरीले पदार्थों की कोई भी खुराक सुरक्शःइत नहीं होती और अपने सम्पर्क में आने वाली आबादी से लेकर पेड़-पौधों तक में इनके विकीरण से दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ते हैं. 

परमाणु ऊर्जा की अन्तर्राष्ट्रीय कार्पोरेट लॉबी के दावों और प्रचार के विपरीत, पिछले दशक में दुनिया में परमाणु ऊर्जा का उत्पादन लगातार घटा है. २००९ की World Nuclear Industry Status Report के मुताबिक दुनिया भर में चालू रिएक्टरों संख्या वर्ष २००२ में २४४ से घटकर २००९ में ४३८ रह गई है और निर्माणाधीन कुल ५२ रिएक्टरों में २६ ऐसे हैं जो बीस सालों से इस लिस्ट में हैं. एक अन्य विशेषग्य समूह के अनुसार, साल २०३० तक विश्व में रिएक्टरों की संख्या दरअसल तीस प्रतिशत घटने वाली है. परमाणु बिजलीघरों की लागत में अत्यधिक पूँजी की ज़रूरत होती है जो लगातार बढ़ रही है. अमेरिका में प्रति मेगावाट अणु-बिजली निर्माण का खर्च १९७० में २००० डॉलर से बढ़कर २०१० में दस हज़ार डॉलर तक जा पहुँचा है. युरेनियम की बढ़ती कीमत और इसके खनन के बढ़ते खर्च से भी आने वाले समय में परमाणु बिजली और अधिक महँगी होने वाली है. दुनिया में कहीं भी परमाणु बिजली बिना भारी सरकारी सब्सिडी के नहीं चल पा रही है. अमेरिका में १९४७ तक परमाणु ऊर्जा को मिलने वाली कुल सरकारी मदद ११५ बिलियन डॉलर थी जबकि इसी अवधि में पवन और सौर ऊर्जा को सिर्फ़ ५.७ बिलियन डॉलर की मदद मिली.

अगले बीस सालों में परमाणु-बिजली उत्पादन को दस गुने से भी ज़्यादा करने की इस सनक में देश के कई हिस्सों में लोगों को जबरन बेदखल किया जा रहा है. साथ ही, पर्यावरणीय प्रभावों के मुकम्मल अध्य्यन के बिना और भूकम्प तथा आपदा-सम्भावित इलाकों में इन रिएक्टरों को लगाया जा रहा है. महाराष्ट्र के जैतापुर, जो कोंकण के बहुत सुंदर-समृद्ध लेकिन भूकम्प सम्भावित और नाजुक समुद्र-तटीय क्षेत्र में स्थित है, में फ्राँस से आयतित कुल छह EPR रिएक्टर लगाए जा रहे हैं. फ्रांसीसी कम्पनी अरेवा के इस रिएक्टर डिजाइन पर फ़िनलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका और खुद फ्रांस की सुरक्षा एजेंसियों ने कुल तीन हज़ार आपत्तियाँ दर्ज की हैं. अरेवा का EPR रिएक्टर अबतक कहीं भी शुरु नहीं हुआ है. फ़िनलैंड में इसकी निर्माण-अवधि २ साल बढ़ानी पड़ी है जिससे इसकी लागत ७०% ज़्यादा हो गई है. पिछले साल UAE ने अपने यहाँ इस रिएक्टर डिजाइन की बजाय दक्षिणी कोरिया के एक रिएक्टर को चुना. लेकिन भारत सरकार तीव्र स्थानीय विरोध के बावजूद जैतापुर में इन रिएक्टरों को लगाने पर आमादा है. पिछले चार सालों से रत्नागिरि जिले के किसानों, मछुआरों, और आमलोगों ने इस रिएक्टर-परियोजना का विरोध किया है और सरकार द्वारा मुआवजे की रकम बढ़ाए जाने पर भी चेक स्वीकार नहीं किया है. उस इलाके में अंदोलन को समर्थन देने जाने वाले लोगों - जिनमें बम्बई उच्चन्यायालय के पूर्व- न्यायाधीश और देश के पूर्व-जलसेनाधिपति भी शामिल हैं - को बाहरी और भड़काऊ बताकर जिले में घुसने से मना किया जा चुका है, और जिले के नागरिक आंदोलनकरियों को जिलाबदर कर दिया गया है. दर्जनों लोगों को झूठे मुकदमों में जेल में डाल दिया गया है.  जैतापुर संयंत्र के इलाके में पड़ने वाले तीनों ग्राम-पंचायतों ने इस परियोजना के खिलफ़ आमराय से प्रस्ताव पारित किए हैं और फ़िर भी उनपर विस्थापन थोप दिया गया है. ज़ाहिर है सरकार सिर्फ़ फ़्रान्सीसी कम्पनी अरेवा को ही देशभक्त मानती है, बाकी सब उसके लिये बाहरी और गैर-ज़रूरी हैं. जैतापुर की तरह ही पश्चिम बंगाल के हरिपुर, आन्ध्र के कोवाडा, गुजरात के मीठीविर्डी, मध्य-प्रदेश के चुटका और हरियाणा के फ़तेहाबाद जैसे संवेदनशील भूभागों में भी ऐसी ही परियोजनाएँ शुरु की गई हैं, जिनका तीखा विरोध इन इलाकों में हो रहा है.

भारत और चीन दो ही ऐसे देश हैं जो रिएक्टरों के महत्वाकांक्षी विस्तार की ओर बढ़ रहे हैं. चीन में जहाँ एक ऐसा निज़ाम है जिसके लिए लोगों के जीवन या पर्यावरण की कोई कीमत नहीं वहीं भारतीय शासकवर्ग भी अपनी मदांधता में उन संकल्पों को रौंद रहा है जो इस देश के संविधान में हमने खुद से किये थे. सजग जनमत-निर्माण और व्यापक जन-गोलबंदी ही इस विनाशकारी पागलपन से देश को बचा सकते हैं.




 यह लेख 'सामयिक वार्ता' पत्रिका के मई अंक में सम्पादित रूप में छप चुका है 

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